शनिवार, 7 अक्तूबर 2023

पुस्तक समीक्षा : विश्वगाथा वैभव

 पुस्तक समीक्षा 
#विश्वगाथा_वैभव  
(हिन्दी साहित्य की त्रैमासिक पत्रिका #विश्वगाथा में विगत 10 वर्षों में  प्रकाशित हुयीं  चुनिंदा रचनाओं का संकलन) 
सम्पादक:  - डाॅ. प्रमोद कुमार तिवारी.

 11 मार्च 2023 को  लब्ध प्रतिष्ठ सम्पादक श्री #पंकज_त्रिवेदी जी की षष्ठीपूर्ति के अवसर पर और  उनकी  विश्व स्तरीय  हिन्दी साहित्यिक पत्रिका  #विश्वगाथा के प्रकाशन के दशाब्दी वर्ष  में प्रवेश के अवसर पर   श्री प्रमोद कुमार तिवारी जी  ने इस में  अब तक प्रकाशित हुयीं विशिष्ट रचनाकारों की चुनिंदा रचनाओं का संकलन #विश्वगाथा_वैभव के नाम से सम्पादित व प्रकाशित कर  लोकार्पिक किया  था.

 बहरहाल व्यक्तिगत आग्रह और एक लम्बे इंतजार के बाद गुजरात सुरेन्द्र नगर की ज्ञानिनी वारी के महकते उपवन में  वट बृक्ष सी उगी इस लब्धप्रतिष्ठ  त्रैमासिक हिन्दी साहित्यिक पत्रिका  #विश्वगाथा के  दशाब्दी अंक #विश्वगाथा_वैभव... की बहुप्रतीक्षित प्रति आज ही डाक से प्राप्त हुयी है.
 ....इसके तप्त वारिद सम घनश्याम मुख पृष्ठ पर  उत्ताल तरंगित इक नदी है, नदी में एक  नाव है  और नाव में  वैठी  है एक विवस्त्र आकृति. जिसकी श्वेत श्याम छवि और उससे भी बड़ी होती...  व्योम में पसरी हुयी  उसकी परछांईं को देख कर .. मन कुछ ठिठका कुछ  चिहुँका.. .पर तभी #श्री राम परिहार जी की रचना  #शब्द_बृ़क्ष  पर दृष्टि फिरी.. वहाँ था "हरेपन में पानी और पानी में थी जीवन की कहानी और आगे थी ".. .. यह नदी... नदी में नाव... और नाव में वैठा हु़आ यह नगां पुंगा चुप.... जो शायद  #नरेन्द्र_रावत जी की कविता"  मौन, /थकान और सुबह" से निकल कर उदास होकर  यहाँ आ वैठा था ... यहाँ इस नाव में...."मौन..  /अर्थ की झील में वैठा हुआ /शब्दों को पत्थर मारता हुआ..???  हारा थका सच.....
  ... और वह नदी???... जो है.. तरल सरल ... #भावना_भट्ट  के #संगम_तीर्थ में स्नान करती हुयी नदी...  कि ...इक" हवा के झौंके ने... हौले से गाल चूमा है नदी का और तभी से नदी के मन ह्रदय में लहर उठ गयी है.... जो अब तक वह अनवरत दौड़ रही है सागर की ओर... और साथ में है.. उस नदी में बहती भव सागर के भँवर में तिरती... यह निर्द्वंद भाव की नौका भी.. और साथ में है  नाव में वैठा हुआ यह खामोशो मलूलो तन्हां.. आखिर ... है  कौन??...  
                     इस बार उत्तर तलाश में   पाठक मन  ने जब उझक कर देखा  #उमा_झुनझुनवाला जी  की "एकऔरत की डायरी " के पन्नों में ...  "तो कहानी कुछ यूँ चली कि "शाम का वक्त था, औरत और मर्द खामोश वैठे थे, नाव में.. मनु और श्रद्धा की तरह... नदी भी बड़ी खामोश थी. सब कुछ बहुत ठहरा हुआ सा... दोनों ने नदी का जल अपनी अँजुरी में भरा.. और इस दुनियां को सरल बनाने की कसमें खाईं और फिर एक दूसरे को चूमा.......! 
... नदी शांत थी.... मन भी शांत था ".... लेकिन... पर..अब ....वह औरत..? औरत कहाँ थी? कहाँ गयी होगी आ़खिर वह औरत??  
   .... तब इस समस्या का  समाधान सुझाते हुये व्यंगकार श्री  #शंकर_पुणताम्बेकर जी ने लिखा... कि वह औरत..... दर असल" वह औरत एक  #आम_आदमी थी..... और कहानी कुछ यूँ थी .. कि.. "नाव चली जा रही थी..... मझधार में नाविक ने कहा, नाव में वो़झ ज्यादा है, कोई एक आदमी कम हो जाए तो अच्छा है, वर्ना नाव डूब  जायेगी
  .... नाव में सवार थे एक डाक्टर, अफसर, वकील व्यापारी, नेता..और आम आदमी..यानी कि वह आम औरत  .. और सब चाहते थे कि यह औरत पानी में कूद जाय... पर वह कूदना नहीं चाहती थी..  वह   कूद भी जाती शायद.... परन्तु.... तभी उस औरत के मन के द्वंद को और भी दुधर्ष करते हुये.. हिंदी की एक देदीप्यमान नक्षत्र Urvashi Bhatt ने भी अपनी" #शुभेच्छा" के साथ साथ उसे अपनी  #दृष्टि भी देते हुये  ... कहा... 
... "स्त्री तुम /दृष्टा बनी रहो/मुक्ति प्रहसन के /आयोजनों की /स्थिर रह कर स्व पर /अपने पथ स्वयं निर्धारित करो...." 
     लेकिन उसका  "  #सा़क्ष्य..". . यह   था... कि  वह  औरत.. .. अपने "भीतर मरती हुयी कहानियों की /एक मात्र दृष्टा होने के बावजूद /साक्ष्य के अभाव में /असहाय है... 
       परन्तु फिर भी , मर मिटने की इस चाहत के साथ भी एक.. #शुभेच्छा..  है जो आज भी जीवित है,स्त्री के ह्रदय में /जो हर प्रताड़ना और पीड़ा को विस्मृत कर पूछती है..." कूद तो जाऊँ... /पर प्रिय... /... मेरी इस अँजुरी भर /प्रार्थना का क्या होगा"... 
  ... और.. तभी नाव में  सवार नेता ने जोर शोर से एक ओजस्वी भाषण पढ़ा.. स्त्री तुम शक्ति हो.. स्वाहा हो... स्वधा हो.. तुम्हीं हो जो शिव बन कर गरल पी सकती हो...तुम. कूद जाओ भँवर में... और जोश में आकर वह औरत पानी में कूद गयी... और उसके बाद से #उर्वशी भी गुमसुम हैं. .. तीन कवितायें सुनाने के बाद  से...! ... स्त्री की #निर्वस्त्र" जिंदा लाश को विसूरते हुये...  वह कहती है... "सुख की स्थूल परिभाषा पकड़ कर  जहाँ हम खड़े हैं वहाँ जीवन शून्य है"....
उधर भव सागर में डोलती उस नाव में वैठा वह नाविक भी चुप है... डाॅ. नरेन्द्र कोहली की कविता "#मौन_थकान_और_सुबह  को पढंता हूआ. "चलो मौन" निशब्द कविता बनायें एक... 
 ... परन्तु यह पाठक मन... वह विश्वगाथा वैभव  को आगे पढ़ता हुआ सोचता है....  जो भी हो... पर नाव से गायब हुयी वह औरत डाॅ. #हंसा_दीप की #मधुमक्खी की तरह तो कदापि नहीं हो सकती . वर्ना वो नेता के मुँह से अपनी झूँठी तारीफ सुन कर इस तरह से नदी में कभी नहीं कूदी होती...! 
      तो दूसरी तरफ औरत की चिंता में बूड़े हुये #ममता_कालिया जी के "विकास" पुरुष और अन्य कइयों के बीच "पुरुषों के कई सैट एक साथ सक्रिय थे, - छेड़खानी करने वाले पुरुष, निगह वानी करने वाले  , वीडियो फिल्म बनाने वाले  और समाचार लिखने वाले पुरुष".. दर असल इन लोगों को  "औरतों का दगड़ - दगड़ बाजार घूमना पहले भी नापसंद था.. इसलिये उन्होंने उस औरत को नाव से उतार कर  घर भेज दिया था क्योंकि "गैस खत्म हो चुकी थी और वह औरत शकीला  पुराना चूल्हा उतार गीली लकड़ियों से जूझ रही थी".. .  और पुरुष के सारे  समुच्चय फिर उस औरत की चर्चा करने  उसी डाल पर आकर लटक गये थे.. उल्टे पाँव धरे वेताल की तरह. 
  .इधर... #संगम_तीर्थ में... "पानी में तैरतीं #भावना_भट्ट की काली और रुपहली आँखों वाली मछलियाँ अपनी भंगिमा से जल को नचा रहीं हैं. वह शायद उस औरत की तलाश में हैं जो अभी अभी नदी में कूदी थी... या फिर उस औरत के जो गैस खतम हो जाने पर  लकड़ी के चूल्हे के क्रास पर ईसा मसीह की तरह झूल रही है. 
   ... पर भावना_भट्ट जी का यह भी कहना है कि वह औरत शायद मीरा थी, जो  नदी बन कर आई और एक नीले सागर में समा गई. 
          विश्वगाथा वैभव की यह आँशिक गा़था तो बस  एक वानगी है. इसके भीतर समेटे गये विश्व हिंदी साहित्य के वैभव और सौन्दर्य की... जो किताब के कलेवर को देखते ही पाठक के मन में हिलोर बन कर उठती है. और पसर जाती है जहाँतक उसकी नजर जाती है... कि आगे वहुत कुछ है  यहाँ... वहाँ.. #सूर्यवाला की " सुनन्दा छोकरी की डायरी" है... डाॅ. सुधा ओम ढींगरा की "इस पार से उस पार" तक.. मोहसिन खान की "सलमा की विदाई"... #अनामिका_अनु , अनिता सिंह, अनुराधा त्रिवेदी और ईप्सिता त्रिवेदी की ओडिया कविता.. यानी असली लुत्फ तो अभी आना बाकी है.. क्योंकि.. किताब बाकी है.. सब कुछ पढ़ना बाकी है.. और आलोचक कम पाठक की कलम भी अभी बाकी है..  इसलिये.. भी.. पाठक तुम अभी आगे पूरा पढ़ो इसे... 🌺🌺🌺🌺🌺🌺 इति. 
विक्रम सिंह भदैरिया 
२६ जुलाई बुधवार 
ग्वालियर (म. प्र.) 
 पोस्ट - 6-10-2023

शुक्रवार, 6 अगस्त 2021

वक्त की टहनी पर लौट आया है वसंत ६

वख्त की सूखी हुई टहनी पर 
लौट आया है फिर से वसंत ......
तुम्हारी भेजी हुयी 
टहनी 🌿 की कलम (बूटी) 
नेह की बारिष में 
भीग कर 
अब भरा पूरा बृक्ष 
 बन चुकी है 
लहलहा उठे हैं 
उपवन में, नव किसलय किंसुक कुसुम
लौट आया है देखो! 
फिर से
वह कुसुमाकर
पुष्पायुध लिये... 

विक्रम सिंह भदैरिया 
24 - 5-—2014

शनिवार, 27 मार्च 2021

दस्तान-ए-अंजुमन (मजमुआ-ए-नज्म) व कलम् शायरा - - दुआ प्रोमिला,,, ऑकलैंड, न्यूजीलैंड

मेरे दुश्मन
सोचती हू़ँ
तेरी यादों को मैं आग लगा दूँ
इस कदर सुलगती हैं
जैसे लेबान जलता हो हर पल
क्या इनका धुआं नहीं पहुँचता तुम तक
या फिर 
तुम्हें आदत होगई है
अश्कों से आग बुझाने की,,,
आदरणीया प्रोमिला दुआ जी का यह नज्म संग्रह जब मुझे मिला मन अन्यमनस्क था, बुझा हुआ, पढ़ने लिखने से तौवा किया हुआ. पर जब यह मजमुआ - ए-नज्म पेशे नज़र हुआ तो खुद को पढ़ने से न रोक सका और पढ़कर इतना  हस्सास हो उठा कि कलम खुद व खुद इसपर त़फ़शरा लिखने वैठ गई.
,,,,,,, प्रोमिला दुआ जी की यह मजमुआ-ए-नज्म यह "दस्तान-ए-अंजुमन" की नज्में हैं या रुबाई हैं या और कुछ है, पर मेरी नज़र में तो यह,, दास्तां - ए-सुखनवर हैं, किसी तृषित दिल की दुआयें हैं, जो नस्र की गईं है किसी प्यारे से दुश्मन के नाम पर. यह सुलगती हैं दहकतीं है, इनमें आहों का धुंआ भी उठता है ़और लपटें भी,,, पर यह सब घटित होता है एक हस्सास दिल के तहखाने में, जहाँ पिघला हुआ इक लावा है जो तप्त तरल हो वह निकलता है, गर्म और खारे पानी का ़इक सोता बन कर...
"कलम भी सिसकती रही है/लफ़्जों के गले मिलकर /शायद तुम समझो /शायद न समझो,,," 
दुआ प्रोमिला जी की इस मजमुआ "दास्तान - ए-अंजुमन की हर नज्म यादों का एक पहरहन है, इक हस्सास रूह का  कलामे दुआ है, इक दालान है किसी के विछोह के मकां का जहाँ यादें वैठ कर सिसकती है,  इक दूजे के गले लग कर, वह झगड़तीं है, उस दुश्मन से, जिसके वगैर वह जिंदा नहीं रह सकतीं...
...... इस मजमुआ की हर इक नज्म इक मकां है जिसकी दीवार पर छतराये हुये हैं कांपती हुई रूह के मोहब्ब के रंग..,,,, जिसके करीब है, जलता हुआ इक माजी का आलाव है, राख में डूबी हुई चिन्गारी है, राख हो चुके लम्हे  हैं और कुछ टूटे हुये कु़छ जलते हुये सपने हैं . जहाँ वैठ कर दुआ जी की नज्में "ऊन के गोले जैसी जिंदगी को लपेटते लपेटते मन की सलाइयों पर अनगिनत ख्वाब बुनतीं" नजर आतीं हैं.
..... इस मजमुआ की हर नज्म कितने ही गम, कितनी आहें, कितने वेताब हसरतों के जनाज़े अपने कांधों पर उठाये हुये चलती है, वहजो लवरेज हैं, उन "सिसकियों की आहट से/ जो दबीं है सदियों से/ किसी के खामोश लवों पर /और वेताब हैं किसी काँधे के लिये/ जहाँ वो रख सकें /अपना सर/ और पा सकें सकून पल दो पल के लिये...." 
..... कहीं  कहीं तो अश्क-ओ- हस्सास की हमदम, यह नज्में, निराशा के गर्त में इतने गहरे तक डूब जातीं हैं कि वह  कह उठतीं है,,,, "कैद है/ रूह मेरी /जिस्म के ताबूत में /जो रूह निकले/तो तू निकले /जो तू निकले /तो रूह निकले /,,,, और जब शायरा का अशांत जेहन कुछ शांत होता है कभी, तो कह उठता है,," कुछ अनकहे शब्द /कुछ खामोशी लफ्जों
 की / न क़ातिल मेहरवां न मौत /मिट्टी मिट्टी में मिलती रही / कभी जिस्म मिट्टी  का /कभी ज़ज्वात मिट्टी के,,,,"
,,,,,, इस मजमुआ की कुछ नज्मों में  लीक से हट कर  मुस्कराहट के मौजूँ भी हैं, कुछ समाज पर, कुछ हालात पर कटाक्ष करती नज्में भी हैं,,, कुछ सूफियाना कलाम भी हैं यहाँ" वक्त की रेत पर /गिर कर सूख गईं /शबनम की बूँदों की तरह,,,,,, वो आँसू /आज तक न टपका आँख से मेरी/जिसमें मैने /जमाने भर की मुस्कराहटें छुपा रखीं थीं.,, 
,,,,और अंत में वह शायरा लिखती हैं,,, 
" मैं खुश्क रेत हूँ/ और आंधियों की ज़द में हूँ/मुझे समेट ले मेरे मालिक के कहीं विखर न जाऊँ मैं,,,
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, विक्रम सिंह भदौरिया
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, 27-March 2021
B-1176 आनन्द नगर, ग्वालियर, 474012

रविवार, 26 अप्रैल 2020

मत रोको इन्हें

मत रोको इन्हें .....मोमबत्तियाँ जलाने से  ......ृ! 

इक रौशनी का दिया जलाओ तो सही .....
और चलो तो सही ...
यह सोच कर  कदम बापस न खींचों कि अँधेरा कितना बड़ा है और तुम्हारे दिये का प्रकाश कितना छोटा सा ...
..कदम दर कदम अँधेरे को चीरते तुम्हारे ये कदम ....
..और यह कदम दर कदम तुम्हारा साथी.... 
...यह छोटा सा दिया ...
  यह छोटी सी रौशनी ..
  यही तुम्हें मंजिल तक लेकर जायेगी ..
...जमे हुये मौन को पिघल कर मौम  सा जलने दो ......
मत रोको .... 
इन चीखों को .......
.ये चीखें हैं प्रलय के आने की आहट हैं ...
..मत रोको इन्हें ........
 Kr.vikram singh april 2013

गुरुवार, 12 मार्च 2020

Basanti vayaar main


रंगों के मौसम में  दिल का हर कौना है रंगीन ....

वसंती वयार में  ,

खयालो की शाख पर झूमता पागल पन

तुम्हारी यादों की डोर थामे

 प्रेम पथिक.

 चल रहा

वीते हुये इतिहास का पाथेय लिये ,डगमग पग 

 विकल ह्रदय, विचलित मन,

  पलास सा दग्ध. हुआ है दिग दिगंत ..

                                    विक्रम सिंह भदैरिया 18-3-14

रविवार, 11 मार्च 2018

प्रलय मेघ

मत रोको
घुमण आये 
काले मेघों को 
नयन की कोर पर

घिर आई है घटा
बरस जाने दो  

चपला संग
नृत्य करते
विद्युतजिव्ह मेघ यह
दरकते हुये
हिमखणड लेकर
 
ह्रदय की पीर को 
करने दो कुछ पल 
दुधर्ष तांडव
प्रलय के काल मेघों 
संग 
बहुत हुआ 
अब

विखरने दो 
टूट कर
हो ज़़ाने दो खण्ड खण्ड
यह पाखण्ड सब

विक्रम सिंह भदौरिया 
२९,-७-२०१९

गुरुवार, 28 सितंबर 2017